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कम जज और मुकदमों का बड़ा बोझ

डॉ. अनिल दीक्षित (शिक्षाविद)

भारत में न्यायपालिका की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या और न्यायाधीशों की भारी कमी है। देश के नागरिकों को न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं, और कई मामलों में तो पीढ़ियां बीत जाती हैं, लेकिन इंसाफ नहीं मिल पाता। अदालतों में पड़े करोड़ों मुकदमे और अपर्याप्त न्यायिक व्यवस्था देश की न्याय प्रणाली की धीमी गति को दर्शाते हैं। "न्याय में देरी, अन्याय के समान है", यह कहावत भारतीय न्याय व्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठती है।

देशभर की अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से कई दशकों से फैसले का इंतजार कर रहे हैं। इनमें दीवानी, आपराधिक, प्रशासनिक और सरकारी मुकदमों की बड़ी संख्या शामिल है। सुप्रीम कोर्ट में लगभग सत्तर हजार से अधिक मामले लंबित हैं, उच्च न्यायालयों में यह संख्या साठ लाख से ज्यादा है, और सबसे अधिक मामले निचली अदालतों में अटके हुए हैं। यह आंकड़े केवल संख्याएं नहीं हैं, बल्कि उन लाखों लोगों की पीड़ा को दर्शाते हैं, जो सालों से न्याय की आस लगाए बैठे हैं। मुकदमों के बढ़ते बोझ का एक बड़ा कारण न्यायाधीशों की भारी कमी भी है। भारत में प्रति दस लाख नागरिकों पर महज उन्नीस से बीस न्यायाधीश हैं, जबकि विकसित देशों में यह संख्या पचास से अधिक होती है। न्यायाधीशों की यह कमी मुकदमों की सुनवाई में देरी का एक अहम कारण बनती जा रही है। अदालतों में खाली पड़े जजों के पदों को भरने की प्रक्रिया धीमी है, और कई बार राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से नियुक्तियों में अनावश्यक देरी होती रहती है।

इसके अलावा, न्यायिक प्रणाली में कई खामियां भी हैं, जो मुकदमों को लंबा खींचने का काम करती हैं। वकीलों द्वारा बार-बार स्थगन लेना, सरकारी मामलों का अदालतों में बढ़ता बोझ, दस्तावेजी प्रक्रियाओं में जटिलता, और न्यायालयों में बुनियादी ढांचे की कमी जैसी समस्याएं अदालतों की धीमी कार्यप्रणाली को और बाधित करती हैं। हालांकि, सरकार और न्यायपालिका इस समस्या को हल करने के लिए प्रयास कर रही हैं। फास्ट-ट्रैक कोर्ट, ई-कोर्ट्स, ऑनलाइन सुनवाई, और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी लाने जैसे कई सुधार किए गए हैं। इसके अलावा, मध्यस्थता और वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे छोटे मामलों को अदालतों तक जाने से पहले ही निपटाया जा सके।

लेकिन समस्या इतनी जटिल है कि केवल इन उपायों से इसे पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता। सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को और तेज करना होगा और न्यायालयों की क्षमता बढ़ानी होगी। तकनीकी विकास के माध्यम से अदालतों के कामकाज को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। साथ ही, सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अनावश्यक मुकदमों की संख्या कम की जाए, खासकर सरकारी विभागों द्वारा दायर किए जाने वाले मुकदमों को सीमित करने की जरूरत है।
भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार अब एक विकल्प नहीं, बल्कि समय की मांग बन चुकी है। न्याय मिलने में देरी केवल एक कानूनी समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास को भी बाधित करती है। यदि अदालतों का बोझ कम नहीं किया गया और न्यायाधीशों की संख्या नहीं बढ़ाई गई, तो आने वाले वर्षों में यह संकट और गहरा सकता है। न्यायपालिका और सरकार को मिलकर एक ठोस योजना बनानी होगी, ताकि हर नागरिक को समय पर और प्रभावी न्याय मिल सके।

 डॉ अनिल दीक्षित  (लेखिक शिक्षाविद हैं।)

डॉ अनिल दीक्षित  (लेखिक शिक्षाविद हैं।)

 

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